एक अनाथ से सिखों के गुरु तक… सेवा और सिद्धि की मूर्ति, धन धन रामदास गुरु
श्री गुरु रामदास जी, पहले भाई जेठा के रूप में, अपनी निःस्वार्थ सेवा और समर्पण से सिखों के चौथे गुरु बने. गुरु अमरदास जी की निष्ठापूर्वक सेवा करते हुए उन्होंने गोइंदवाल साहिब में अपना जीवन समर्पित कर दिया. उनकी सेवा से प्रसन्न होकर, उन्हें गुरगद्दी मिली और उन्होंने रामदासपुर (आज का अमृतसर) और स्वर्ण मंदिर की नींव रखी.
अगर आप कभी गुरुद्वारा साहिब गए हों तो आपने अनेक लोगों को सेवा करते देखा होगा. मगर, क्या आप जानते हैं कि सच्चे मन से सेवा करके ही गुरु नानक को सिखों के गुरु की उपाधि मिली थी. सबसे पहले जब भाई लहना ने सेवा की तो गुरु ने उन्हें अपना सब कुछ देकर अपना ‘अंग’ बना लिया. फिर जब गुरु अंगद जी ने बाबा अमरदास को सेवा करते देखा तो उन्हें गुरु नानक की गद्दी का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया. इसी तरह जब भाई जेठा जी ने यही सेवा की तो एक अनाथ बालक सिखों के चौथा गुरु बन गया, जिन्हें श्री गुरु रामदास जी कहा जाता है.
ऐसा माना जाता है कि सच्चे मन से की गई सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती, सच्चे गुरु की सेवा करने वाला कभी भक्त बन जाता है और अगर उसमें सिद्क़ भी हो, तो वह ईश्वर का दिव्य रूप बन जाता है. इसीलिए अब हर सिख कहता है… सतिगुर की सेवा सफलु है, जे को करे चितु लाइ… मनि चिंदिआ फलु पावणा, हउमै विचहु जाइ.
अर्थात्, सच्चे मन से की गई सतगुरु की सेवा सफल होती है. सेवा का फल ऐसा होता है कि सेवा करने वाले को न तो कोई चिंता रहती है और साथ ही संसार की सभी भौतिक वस्तुएं (धन, पारिवारिक सुख) प्राप्त हो जाती हैं.
साहिब श्री गुरु रामदास साहिब जी का जन्म लाहौर (अब पाकिस्तान) के चूना मंडी क्षेत्र में सोढ़ी परिवार में पिता हरदास जी के घर माता दया जी की कोख से हुआ. वे अपने माता-पिता के सबसे बड़े पुत्र थे. इसीलिए परिवार उन्हें प्यार से जेठा कहकर पुकारता था. जेठा जी थोड़े समय के लिए ही अपने माता-पिता की छत्रछाया में रहे, जब वे मात्र 7 वर्ष के थे, तब उनके माता-पिता का देहांत हो गया.
माता-पिता की मृत्यु के बाद अनाथ हुए जेठा जी को उनकी नानी बासरके गांव ले आईं. यहां वो परिवार के काम में हाथ बंटाने लगे और आर्थिक सहायता के घुंघनी (चने/गेहूं आदि के उबले हुए दाने) बेचना शुरू किया. बासरके गांव की संगत श्री गुरु अमरदास जी (सिखों के तीसरे गुरु) की सेवा करने जाती थी. जब भाई जेठा जी लगभग 12 वर्ष के थे, तब वे संगत की सेवा करने गोइंदवाल साहिब चले गए.
गोइंदवाल साहिब में सेवा करते हुए उनका मन इतना प्रसन्न हो गया कि उन्होंने अपने गांव लौटने का विचार त्याग दिया और सदैव गुरु अमरदास जी की सेवा में रहने का निश्चय कर लिया.
लंगर की सेवा
गोइंदवाल साहिब में रहते हुए भाई जेठा जी ने अपना तन-मन गुरु की सेवा में समर्पित कर दिया. सुबह वे श्री गुरु अमरदास जी की सेवा करते, उसके बाद लंगर सेवा करते. उसके बाद, यदि समय बचता तो वे आसपास के इलाकों में घुंघनी बेचने चले जाते.
यह क्रम ऐसे ही चलता रहा, समय बीतता गया और भाई जेठा सेवा में लगे रहे.. न लोभ… न भय.. पर गुरु तो गुरु हैं, वे अपने भक्तों का ध्यान रखते रहे हैं. इस प्रकार गुरु अमरदास जी की नज़र सेवाभाव से जुटे भाई जेठा जी पर पड़ी और उन्होंने 1553 ई. में अपनी पुत्री बीबी भानी जी का विवाह भाई जेठा जी से कर दिया.
गुरु अपने सिखों की परीक्षा लेते हैं, ये परीक्षाएं गुरु रामदास जी की भी हुई. बीबी भानी जी से विवाह के बाद भी भाई जेठा जी ने उसी भक्ति भावना को बनाए रखा, उनके अंदर कभी यह भावना नहीं आई कि वो अब संगत से बड़े हो गए है क्योंकि गुरु के साथ उनके सांसारिक संबंध हो गए है. जब भी गुरु भाई जेठा जी को कोई आदेश देते, जेठा जी उसका पालन करते चाहे दिन हो या रात, चाहे धूप या छांव.. इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने भाई जेठा जी को एक बावली (Baoli) बनवाने का आदेश दिया. गुरु साहिब के आदेश का पालन करते हुए, उन्होंने विनम्र और समर्पण भाव से यह सेवा की.
सेवा से प्रसन्न होकर, गुरु अमरदास जी ने गुरु रामदास जी को एक नया शहर बसाने का आदेश दिया. जिसे स्वीकार करते हुए उन्होंने 1574 ई. में तुंग, गुमटाला, सुल्तानविंड आदि गांवों की ज़मीन लेकर एक गांव बसाया, जिसे गुरु का चक के नाम से जाना गया. इसके पूर्वी भाग में एक तालाब बनवाया गया. बाद में इस गांव का नाम रामदासपुर और तालाब अमृतसर के नाम से जाना गया.
जी हां, वही अमृतसर शहर, जहां सचखंड श्री हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) सुशोभित है. जहां प्रतिदिन लाखों श्रद्धालु मत्था टेकने आते हैं. यहां के लंगर की चर्चा दुनिया के कोने-कोने में होती है, क्योंकि गुरु रामदास जी की कृपा से ही यहां प्रतिदिन लाखों श्रद्धालु प्रसादा (भोजन) ग्रहण करते हैं.
मिली गुरयाई
गुरु अमरदास जी के सामने सिखों के चौथे गुरु चुनने के लिए चार मुख्य उम्मीदवार थे, जिनमें उनके दो पुत्र (बाबा मोहन और मोहरी) और दो दामाद (रामा और जेठा) थे. जब गुरु ने उनकी परीक्षा ली तो भाई जेठा जी ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो गुरु नानक जी की विचारधारा, सेवा और सत्य के अनुयायी थे. इस प्रकार श्री गुरु रामदास जी को सिखों के चौथे गुरु होने का गौरव प्राप्त हुआ.
भाटी कीर्ति जी गुरु रामदास जी की स्तुति में लिखते हैं…
सोढ़ी सृष्टि सकल तारण कउ अब गुर रामदास कउ मिली बड़ाई
गुरु रामदास जी ने गुरु नानक साहिब की विचारधारा और सिख धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए. गुरु रामदास जी ने गृहस्थ जीवन में रहते हुए भक्ति की. चौथे गुरु जी के तीन पुत्र थे. सबसे बड़े पुत्र पृथ्वी चंद, दूसरे महादेव जी और तीसरे श्री अर्जन देव जी थे. श्री गुरु नानक साहिब के चौथे उत्तराधिकारी, श्री गुरु रामदास साहिब, सात वर्षों तक गुरु गद्दी पर रहे और सेवा तथा नाम सिमरन करते रहे.
श्री गुरु ग्रंथ साहिब में 31 रागों में बाणी हैं, जिनमें से 30 राग अकेले श्री गुरु रामदास जी की बाणी से हैं. गुरु रामदास जी से पहले, प्रथम गुरु, गुरु नानक जी ने 20 रागों में बाणी लिखी थी और गुरु अमरदास जी ने 18 रागों में बाणी लिखी. अंततः गुरु रामदास जी ने अपने सबसे छोटे पुत्र गुरु अर्जन साहिब को पांचवां गुरु नियुक्त किया और 1581 ई. में स्वर्गवास हो गए.
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